
भारत की राजधानी दिल्ली में झुग्गी-झोपड़ियों, असंगठित और अनाधिकृत बस्तियों में रहने वाले हज़ारों परिवार एक गंभीर विस्थापन संकट का सामना कर रहे हैं.
अदालतों के आदेशों के तहत झुग्गी बस्तियाँ गिराई जा रही हैं और बिजली और पानी जैसी बुनियादी सुविधाएँ अचानक काट दी जा रही हैं.
दक्षिणी दिल्ली के वसंत कुंज में जय हिंद कैंप से लेकर उत्तरी दिल्ली की वज़ीरपुर बस्ती तक, शहरी विस्थापन की एक दर्दनाक तस्वीर उभर रही है.
यह स्थिति न केवल प्रभावित परिवारों के लिए संघर्ष खड़ा कर रही है, बल्कि दिल्ली के शहरी विकास को लेकर भी गंभीर सवाल खड़े कर रही है.
बीबीसी हिंदी के व्हॉट्सऐप चैनल से जुड़ने के लिएयहाँ क्लिककरें
जय हिंद कैंप: बिना बिजली के जीवन बना संघर्षवसंत कुंज के समृद्ध रिहायशी इलाक़ों के ठीक बगल में बसा है जय हिंद कैंप.
कैंप की ओर जाने वाला रास्ता कूड़े और कबाड़ के ढेर से भरा है. यहां कुछ क़दम चलते ही अजीब-सी बदबू असहज कर देती है.
मक्खियाँ भिनभिना रही हैं, और झुग्गियों के बाहर पसीने में तर-बतर महिलाएँ हाथ से पंखा हिलाकर भीषण गर्मी से कुछ राहत पाने की कोशिश कर रही हैं.
हर तरफ से बच्चों के रोने की आवाज़ें आ रही हैं. हाल की बारिश ने कच्ची गलियों को कीचड़ से भर दिया है, जिससे चलना मुश्किल हो गया है.
जय हिंद कैंप में एक हज़ार से अधिक कच्ची झुग्गियाँ हैं, जहाँ ज़्यादातर पश्चिम बंगाल के कूच बिहार ज़िले से आए मुस्लिम प्रवासी परिवार रहते हैं. कुछ हिंदू परिवार भी हैं.
पिछले साल दिसंबर में आए एक अदालती आदेश के बाद, बीते सप्ताह इस बस्ती की बिजली अचानक काट दी गई.
यह मामला मसूदपुर गाँव की ज़मीन के मालिकाना हक़ को लेकर चल रहे विवाद से जुड़ा है, जिसमें कई लोगों ने ज़मीन पर अपना दावा पेश किया है.
बस्ती में एक ओर मंदिर है, और बीच में एक मस्जिद. इन दोनों के बिजली कनेक्शनों से ही कैंप की सभी झुग्गियों में बिजली की आपूर्ति होती थी, क्योंकि यहाँ रहने वालों के पास अपने निजी बिजली कनेक्शन नहीं हैं.
बिजली कटने से यहाँ पहले से ख़राब हालात और भी बदतर हो गए हैं.
- 'खाने से ज़्यादा महंगा पड़ रहा है पानी', भीषण गर्मी के बीच गहराता दिल्ली में जल संकट
- जब दिल्ली में कोर्ट की महिला जज को मिली धमकी, "तू बाहर मिल, देखते हैं कैसे ज़िंदा घर जाती है"
- भूकंप का केंद्र दिल्ली में होने का मतलब क्या है, क्या ख़तरा और बढ़ जाता है?
अज़ीज़ुर हक़, जो 20 साल से इस बस्ती में रह रहे हैं और एक मॉल में नौकरी करते हैं, वो रात भर नींद न आने के कारण काम पर नहीं जा सके.
मंदिर के पास लगे बड़े मीटर को हटाए जाने की जगह दिखाते हुए वे कहते हैं, "यहाँ मीटर था, उसे भी ले गए, तार भी ले गए. मैं 20 साल से यहाँ हूँ. यहाँ रहने वाले सभी लोग छोटे-मोटे काम करके गुज़ारा करते हैं. अब बिजली के बिना हम क्या करें?"
पापिया बीबी, अपने पड़ोसी के बच्चे को गोद में लिए, उसका पसीना पोंछते हुए कहती हैं, "अगर बिजली काटनी थी, तो पहले बता देते. हम कुछ इंतज़ाम कर लेते. अगर हमें यहाँ से हटाना है, तो वक़्त तो दो ताकि हम रहने की व्यवस्था कर सकें. यहाँ छोटे-छोटे बच्चे हैं और बिजली काट दी गई. कोई देखने तक नहीं आया कि हम कैसे जी रहे हैं."
कैंप के एक कोने में किराने की दुकान चलाने वाले हसन उल हक़ ग़ुस्से में सवाल करते हैं, "क्या हम इंसान नहीं, जानवर हैं जो हमारे साथ ऐसा सलूक हो रहा है?"
एक महिला की गोद से दूधमुँहे बच्चे को लेकर दिखाते हुए वो कहते हैं, "मेरा बच्चा दो साल का है. हम कहाँ जाएँगे? सारी रात बच्चे रोते रहते हैं. कोई एक दिन हमारे साथ रहकर देखे, तब पता चलेगा कि हम कैसे जी रहे हैं. हम आज़ादी चाहते हैं. बिजली, पानी, शौचालय- हमारे पास कुछ भी नहीं है. हमारी तकलीफ़ हम ही जानते हैं."
यह ग़ुस्सा और निराशा बस्ती के हर चेहरे पर साफ़ दिखाई देती है. कई लोग अपने सामान समेटकर कैंप छोड़ कर जाते भी दिखाई देते हैं.
ज़्यादातर झुग्गियाँ टिन की छतों वाली हैं और बिजली न होने से यहाँ गर्मी असहनीय हो गई है.
बिजली आपूर्ति करने वाली कंपनी बीएसईएस राजधानी ने इस मुद्दे पर कोई बयान नहीं दिया है और न ही कंपनी ने बीबीसी के सवालों का जवाब ही दिया है.
क्या दिल्ली में बढ़ रहा है विस्थापन?जय हिंद कैंप का यह संकट अकेला नहीं है. पिछले कुछ महीनों में दिल्ली की कई झुग्गी बस्तियों को तोड़ा गया है.
दक्षिण-पूर्वी दिल्ली के भूमिहीन कैंप में भी 11 जून को अदालत के आदेश पर सैंकड़ों घर गिरा दिए गए.
यहाँ रहने वाले ज़्यादातर परिवारों को पुनर्वास के तहत फ़्लैट दिए गए हैं, लेकिन कुछ लोग, जैसे बुज़ुर्ग दीपा, दस्तावेज़ों की कमी के कारण पुनर्वास से वंचित रह गए.
दीपा अब भूमिहीन कैंप के मलबे पर अस्थायी झुग्गी डालकर रह रही हैं. तपती गर्मी ने उनके लिए हालात और भी मुश्किल कर दिए हैं.
40 साल से इस बस्ती में रह रही दीपा कहती हैं, "मैंने अपनी बेटियों की शादी कर दी, मेरा बेटा यहीं है. 10 साल से झुग्गी तोड़ने की बात हो रही थी. मैं सोचती थी, अगर हमारी झुग्गी जाएगी, तो सबकी जाएगी. साल 2022 में जब तोड़फोड़ की बात हुई, तो मैंने आधार कार्ड और कुछ दस्तावेज़ बनवाए, लेकिन राशन कार्ड नहीं बन सका."
सरकारी आवास न मिलने पर वे कहती हैं, "यहाँ ज़्यादातर लोगों को घर मिल गया, लेकिन मेरे जैसे लोगों को, जिनके पास राशन कार्ड या वोटर आईडी नहीं है, कुछ नहीं मिला."
वे कहती हैं, "मैं बस सरकार से यही मांगती हूँ कि हमें सिर छिपाने की जगह दे दे. हमारे पास काग़ज़ नहीं हैं, लेकिन हम भी इस देश के नागरिक हैं."
- मोदी सरकार की योजनाएं- क्या चुनावी घोषणापत्र के ये वादे पूरे हुए?
- नरेंद्र मोदी की प्रधानमंत्री आवास योजना में भ्रष्टाचार के ठोस सबूत- बीबीसी पड़ताल
- मोदी सरकार ने दस साल में किन क़ानूनों में किया बदलाव, नागरिकों पर कैसा असर?
भूमिहीन कैंप के उन परिवारों को, जो पुनर्वास के लिए योग्य पाए गए, पास ही आशा किरण अपार्टमेंट में फ़्लैट दिए गए.
बाहर से ये बहुमंज़िला इमारतें आकर्षक लगती हैं, जहाँ बिजली और पानी की सुविधा है. पास में एक पार्क भी है, जहाँ बच्चे खेलते हुए नज़र आते हैं.
लेकिन अंदर की हक़ीक़त कुछ और है. लिफ़्ट में गंदगी है, सीढ़ियाँ कई दिनों से साफ़ नहीं हुई हैं और लोग गंदे पानी और अव्यवस्था की शिकायत करते हैं.
एक बच्ची, जो फ़्लैट के बाहर बैठकर पढ़ रही थी, बताती है, "यह एक कमरे का फ़्लैट है. हम आठ लोग हैं. अंदर जगह ही नहीं है."
रमाकांत रावत, जिन्हें पुनर्वास में फ़्लैट मिला, कहते हैं, "फ़्लैट अच्छा है, सुविधाएँ भी हैं, लेकिन मेरे परिवार के लिए यह काफ़ी नहीं है. भूमिहीन कैंप में हमारी तीन मंज़िल की झुग्गी थी, जिसमें मेरे तीन बेटों के परिवार रहते थे. अब इस फ़्लैट में सिर्फ़ मैं और मेरी पत्नी रहते हैं. मेरे बेटों को किराए पर घर लेना पड़ा. पुनर्वास तो पूरे परिवार का होना चाहिए था."
जंगपुरा और वज़ीरपुर में चला बुलडोज़र
दक्षिण-पूर्वी दिल्ली के जंगपुरा में मद्रासी कैंप, जो तमिल प्रवासी मज़दूरों का घर था, अब मलबे का ढेर है. एक जून को अदालत के आदेश पर इसे तोड़ दिया गया.
इस कैंप के ज़्यादातर परिवारों को यहाँ से क़रीब 40 किलोमीटर दूर नरेला में सरकारी फ़्लैट दिए गए. लेकिन कई परिवार, जिनके पास दस्तावेज़ नहीं थे, पुनर्वास से वंचित रह गए और अब आसपास के इलाक़ों में किराए पर रह रहे हैं.
नरेला में फ़्लैट पाने वालों की भी मुश्किलें कम नहीं हैं. बीबीसी तमिल से बात करते हुए कई लोगों ने बताया कि दूरी के कारण उनका काम छूट गया.
उत्तरी दिल्ली के वज़ीरपुर में रेलवे लाइन के पास बनी दशकों पुरानी झुग्गी बस्ती बाशिंदों को पुनर्वास का विकल्प दिए बिना ही गिरा दी गई.
अपना पूरा जीवन यहीं बिताने वाली हीरा देवी अब बेघर हैं और टूटी झुग्गी के बाहर ही रह रही हैं.
वे कहती हैं, "जब चार-पाँच झुग्गियाँ थीं, तभी हटा देना चाहिए था. लोग बसते गए, बस्ती बढ़ती गई. अब जब हज़ारों झुग्गियाँ हैं, तो बुलडोज़र चला रहे हैं. ठीक है, तोड़ दो, लेकिन हमें सिर छिपाने की जगह तो दो."
वे आगे कहती हैं, "मेरी शादी यहीं हुई, मेरे बच्चे यहीं पैदा हुए, फिर उनकी शादी हुई, और उनके बच्चे भी यहीं पैदा हुए. अब हमारी झुग्गी तोड़ दी. हम अपने बच्चों को कहाँ रखें? गाँव भेज दिया, लेकिन वे वहाँ कितने दिन रहेंगे? स्कूल से रोज़ फ़ोन आता है कि बच्चे क्यों नहीं पढ़ने आ रहे. मैं रोज़ झूठ बोलती हूँ. बच्चों का स्कूल तो नहीं रुक सकता. हमारे हालात को कोई नहीं समझता."
- दिल्ली चुनाव में आरक्षित सीटें हैं सत्ता की 'चाबी', इस बार दलित वोटर किसके साथ?
- मोदी सरकार ने दस साल में किन क़ानूनों में किया बदलाव, नागरिकों पर कैसा असर?
- सेंट्रल विस्टा: क्या पीएम मोदी को एक नए घर की ज़रूरत है?
साल 2012 के एनएसएसओ सर्वे के अनुसार दिल्ली में क़रीब छह हज़ार झुग्गी बस्तियाँ हैं. लेकिन दिल्ली सरकार की पुनर्वास नीति के तहत केवल वही 675 बस्तियाँ योग्य हैं, जो 'डूसिब' यानी दिल्ली शहरी आश्रय बोर्ड (डीयूएसआईबी) की सूची में हैं.
दिल्ली सरकार की प्रवासन नीति के तहत डूसिब सूची में शामिल साल 2006 से पहले बनी बस्तियों और साल 2015 से पहले बने घरों को बिना पुनर्वास के नहीं तोड़ा जा सकता.
वज़ीरपुर की बस्ती डूसिब की सूची में है, फिर भी रेलवे लाइन के पास के घरों को तोड़ दिया गया और प्रभावित लोगों के पुनर्वास की व्यवस्था नहीं की गई.
मुख्यमंत्री रेखा गुप्ता ने कहा, "रेलवे लाइन पर घर बनाएँगे, तो उसे कोई नहीं बचा सकता. आपको अपनी, शहर की, और रेलवे की सुरक्षा का ध्यान रखना होगा. अगर कोई हादसा हुआ, तो ज़िम्मेदारी किसकी होगी?"
लेकिन 'न्याय नीति' फ़ाउंडेशन की अधिवक्ता अनुप्रधा सिंह कहती हैं कि अब डूसिब की सूची वाली बस्तियों में भी तोड़फोड़ हो रही है.
वो कहती हैं, "पहले ग़ैर-सूचीबद्ध बस्तियाँ तोड़ी जा रही थीं. अब सूचीबद्ध बस्तियों को भी तोड़ा जा रहा है, जो नीति का उल्लंघन है."
पुनर्वास की चुनौतियाँपुनर्वास के लिए साल 2015 से पहले की बस्ती में रहने का सबूत देना ज़रूरी है, लेकिन दस्तावेज़ों की कमी सबसे बड़ी बाधा है.
अनुप्रधा सिंह कहती हैं, "लगभग 12 दस्तावेज़ों में से राशन कार्ड और वोटर आईडी ज़रूरी हैं. जिनके पास ये नहीं हैं, उनका पुनर्वास नहीं हो पा रहा. साल 2015 से दिल्ली में नए राशन कार्ड बनना बंद है."
वे सवाल करती हैं, "जिनके पास दस्तावेज़ नहीं हैं, क्या उनका कोई हक़ नहीं? जिनके पास हैं, उन्हें भी परेशानी हो रही है. क्या हम लोगों को बसाने की कोशिश कर रहे हैं या सिर्फ़ हटा रहे हैं?"
झुग्गीवासियों के पास क़ानूनी विकल्प भी सीमित हैं. अनुप्रधा कहती हैं, "साल 2012 में छह हज़ार से ज़्यादा बस्तियाँ थीं, लेकिन डूसिब की सूची में सिर्फ़ 675 हैं. बाक़ी बस्तियों को कोई क़ानूनी संरक्षण नहीं है. सरकार चाहे तो इन्हें बिना पुनर्वास के तोड़ सकती है."
- नरेंद्र मोदी को आरएसएस में लाने वाले 'वकील साहब' और गुजरात के मुख्यमंत्री बनने की कहानी
- दिल्ली: सीएम रेस में बाज़ी पलटने वालीं रेखा गुप्ता के सामने क्या हैं बड़ी चुनौतियां
- क्या दिल्ली में बीजेपी की सरकार के लिए चुनौती बनेंगे ये पांच चुनावी वादे
आवास का अधिकार एक मूल अधिकार है, लेकिन बेघर हुए लोग बेहद मुश्किल हालात में जी रहे हैं. घर टूटने से इनकी ज़िंदगी बिखर गई है.
शोधकर्ता निधि जारवाल कहती हैं, "ये सबसे कमज़ोर तबका है, जिसे सबसे पहले हटाया जाता है और जिसकी सुनवाई सबसे आख़िर में होती है. ये लोग मज़दूरी करते हैं, रिक्शा चलाते हैं, घरेलू काम करते हैं. अगर इन्हें दूर भेजा जाता है, तो क्या इनका रोज़गार बचेगा?"
"बच्चों की पढ़ाई का क्या होगा? ये लोग आँकड़े नहीं, भारत के नागरिक और मतदाता हैं. यह नैतिकता और मानवता का सवाल है. अगर हम इन्हें हटाते हैं, तो इनके जीवन को बेहतर करना हमारी ज़िम्मेदारी है."
आधिकारिक चुप्पी, सियासत और टूटे वादे
डूसिब ने तोड़फोड़ पर कोई बयान नहीं दिया. पुनर्वास मामलों के उप-निदेशक राजीव गुप्ता ने बीबीसी से बात करने से इनकार कर दिया.
डीडीए का कहना है कि सभी कार्रवाई अदालत के आदेश और क़ानून के दायरे में है.
साल 2015 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2022 तक हर झुग्गीवासी को पक्का घर देने का वादा किया था, जिसका नारा था "जहाँ झुग्गी, वहाँ मकान."
यह नारा दिल्ली विधानसभा चुनावों में भी गूँजा, लेकिन वज़ीरपुर में अपने टूटे घर के बाहर बैठी हीरा देवी कहती हैं, "जहाँ झुग्गी, वहाँ मकान नहीं, बल्कि जहाँ झुग्गी, वहाँ बुलडोज़र."
20 जून को मुख्यमंत्री रेखा गुप्ता ने कहा, "सरकार के पास पर्याप्त फ़ंड होना चाहिए ताकि योजनाएँ सही से लागू हों. जो लोग सालों से यहाँ रह रहे हैं, उनके साथ अन्याय नहीं होगा. हम पंजीकृत मकानों के लिए योजना बना रहे हैं. हमारा मक़सद तोड़ना नहीं, बसाना है."
विपक्षी आम आदमी पार्टी ने इस मामले में दिल्ली की बीजेपी सरकार को घेरा है. दिल्ली विधानसभा में प्रतिपक्ष की नेता और पूर्व मुख्यमंत्री आतिशी ने कहा कि बीजेपी चुनाव के समय झुग्गियों में जा रही थी, लेकिन अब उन्हीं झुग्गियों को गिरा रही है.
उन्होंने आरोप लगाया कि बीजेपी ग़रीबों के सपने कुचल रही है. आतिशी ने कई इलाक़ों में जाकर झुग्गीवासियों से मुलाक़ात की और लोगों को भरोसा दिलाया कि उनकी पार्टी ग़रीबों की आवाज़ बनेगी.
पिछले दिनों दिल्ली के जंतर-मंतर पर एक प्रदर्शन के दौरान लोगों को संबोधित करते हुए दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने कहा कि बीजेपी की सरकार ग़रीबों को सड़क पर रहने को मजबूर कर रही है.
उन्होंने कहा,"पीएम मोदी की गारंटी झूठी है. आगे कभी मोदी की गारंटी पर भरोसा मत करना."
कांग्रेस ने भी इस मामले पर बीजेपी सरकार को घेरा है. पार्टी प्रवक्ता अलका लांबा ने कहा कि देश में लोग पहले से ही ग़रीबी, महंगाई और बेरोज़गारी से परेशान हैं और अब उनके सिर से छत भी छीनी जा रही है.
इस मामले पर चल रहे सियासत के बीच जय हिंद कैंप के अंधेरे से लेकर वज़ीरपुर के मलबे तक दिल्ली की झुग्गी-बस्तियों में रहने वाले लोग अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं.
क़ानूनी जंग और अधिकारों की मांग के बीच सवाल यह है कि क्या दिल्ली अपनी सबसे ग़रीब आबादी को सम्मानजनक जीवन दे पाएगी या विस्थापन ही उनका भविष्य होगा?
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
(बीबीसी हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए आप यहां क्लिक कर सकते हैं. आप हमें फ़ेसबुक, एक्स, इंस्टाग्राम, और व्हॉट्सऐप पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं.)
- आरएसएस ने नए बीजेपी अध्यक्ष के चुनाव और बांग्लादेश में हिंदुओं के हालात पर क्या कहा?
- आरएसएस ने नए बीजेपी अध्यक्ष के चुनाव और बांग्लादेश में हिंदुओं के हालात पर क्या कहा?
- दिल्ली चुनाव में हार-जीत से अरविंद केजरीवाल और उनकी पार्टी पर क्या असर पड़ सकता है?
- चुनावी दस्तावेज़ों के निरीक्षण से जुड़े नियम में बदलाव पर विपक्ष ने उठाए सवाल
You may also like
टॉप वेडिंग डेस्टिनेशन बन सकता है भारत, इंडस्ट्री के जरिए युवाओं को बनाया जा सकता है सशक्त : पीएचडीसीसीआई
पवन कल्याण की फिल्म 'हरि हर वीर मल्लू' की बुकिंग में कमी, क्या होगा बॉक्स ऑफिस पर असर?
DFCCIL ने MTS और अन्य पदों के लिए उत्तर कुंजी जारी की
बच्चों की कम हाइट सरकार के लिए बनी चिंता, गाजियाबाद में पहली बार नोडल अधिकारी तैनात
Gold Rate Today: सस्ते सोने में भी नहीं हो पाएगी ठगी, सरकार ने लिया यह बड़ा फैसला