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पहलवान का बेटा कैसे बना बांसुरी की दुनिया का सम्राट?

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BBC मशहूर संगीतकार और बांसुरी वादक पंडित हरि प्रसाद चौरसिया बीबीसी के शो 'कहानी ज़िंदगी की' में.

बांसुरी वादन पर चर्चा हो और पंडित हरि प्रसाद चौरसिया का नाम न आए, ये नामुमकिन है. भारत से लेकर दुनियाभर में मशहूर पंडित हरि प्रसाद चौरसिया में बांसुरी को लेकर आज भी वही जुनून है, जो उनके शुरुआती दिनों में था.

उन्होंने हिंदी सिनेमा की कई फ़िल्मों में संगीत दिया. इसके अलावा उन्होंने तमिल, तेलुगु और मलयालम फ़िल्मों में भी संगीत दिया.

उन्होंने मशहूर संतूर वादक पंडित शिव कुमार शर्मा के साथ मिलकर संगीतकार जोड़ी 'शिव-हरि' बनाई. दोनों ने मिलकर 'सिलसिला', 'चांदनी', 'लम्हे' और 'डर' जैसी फ़िल्मों में सुपरहिट संगीत दिया.

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'27 डाउन' उनकी पहली हिंदी फ़िल्म थी, जिसमें उन्होंने संगीत दिया था.

इतना ही नहीं, उन्होंने 'द बीटल्स' जैसे कई कलाकारों के साथ कई कॉन्सर्ट किए हैं.

एक जुलाई को वो 87 साल के होने जा रहे पद्मविभूषण पंडित हरि प्रसाद चौरसिया ने बीबीसी हिंदी की ख़ास पेशकश 'कहानी ज़िंदगी की' में अपने जीवन के पहलुओं पर हमारे सहयोगी इरफ़ान से बात की.

बचपन के दिन और संगीत image Getty Images पंडित हरि प्रसाद चौरसिया के पिता अपने बेटे का करियर कुश्ती में देखना चाहते थे, लेकिन बेटे का रुझान संगीत की ओर था

मशहूर संगीतकार और बांसुरी वादक पंडित हरि प्रसाद चौरसिया का जन्म उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में हुआ था. उनके पिता पहलवान थे और चाहते थे कि वह भी कुश्ती में अपना करियर बनाए. लेकिन उनका रुझान हमेशा से ही संगीत में था.

वे याद करते हैं, "इलाहाबाद एक ऐसी जगह है जहां आपको हर प्रकार के गुणी लोग मिल जाएंगे, जैसे अपने मदन मोहन मालवीय जी."

उनके पिता बचपन में उन्हें कुश्ती दिखाने ले जाते थे.

वह बताते हैं, "कभी भी कोई दंगल होता था तो बड़े-बड़े पहलवान बाहर से आते थे. उस वक़्त, मैं छोटा था तो मेरे पिता मुझे गोद में लेकर कुश्ती दिखाने ले जाते थे. मैं कुश्ती तो देखता था लेकिन मुझे कभी अच्छा नहीं लगा."

"मैंने कहा ये क्या लड़ाई है? एक के गर्दन पर एक आदमी बैठा हुआ है और नीचे वो चिल्ला रहा है. ये ठीक नहीं है."

अपने स्कूल के दिनों के बारे में बात करते हुए हरि प्रसाद चौरसिया बताते हैं, "मुझे संगीत से बहुत लगाव था. स्कूल में कभी-कभी बड़े ऑफ़िसर आते थे या कोई त्योहार होता था तो हमारे स्कूल के प्रिंसिपल केदारनाथ गुप्ता चाहते थे कि मैं वहां पर परफॉर्म करूं. मुझसे गाने के लिए कहा जाता था और मैं गा देता था. जब मैं गाता था तो वह बहुत खुश होते थे."

image BBC

पंडित हरि प्रसाद चौरसिया बताते हैं कि पढ़ाई में वे ज़्यादा अच्छे नहीं थे, लेकिन संगीत की वजह से उन्हें पास कर दिया जाता था.

वे कहते हैं, "मैं पढ़ाई में बहुत कमज़ोर था. लेकिन मुझे गाने-बजाने की वजह से पास कर दिया जाता. मैट्रिक पास करने के बाद मुझे नौकरी भी मिल गई थी."

नौकरी के दौरान भी उनका मन संगीत में ही डूबा रहा.

उन्होंने कहा, "जब मुझे ऑफ़िस में ढूंढा जाता, तो मैं अक्सर स्टूडियो में बांसुरी बजा रहा होता था. मुझे लगा कि नौकरी मेरे रास्ते की दीवार बन रही है. इसलिए मैंने नौकरी छोड़ दी."

"मैं सीखना चाहता था, जानना चाहता था कि दुनिया में संगीत कहां-कहां बसा है. मैंने तय किया कि यह सिर्फ़ मेरा काम नहीं, मेरा धर्म होगा और वही मैंने अपना लिया."

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बांसुरी को ही वाद्य यंत्र क्यों चुना? image Getty Images

पंडित हरि प्रसाद चौरसिया ने भारतीय शास्त्रीय संगीत में बांसुरी को नई पहचान दिलाई.

वह कहते हैं, "मैं बांसुरी की पूजा करता हूं."

अपने शुरुआती दिनों को याद करते हुए वे कहते हैं, "मैं संगीत के लिए बहुत कुछ करना चाहता था, लेकिन भगवान ने गला अच्छा नहीं दिया. सरोद या सितार जैसे बड़े वाद्य यंत्र खरीदने के लिए पैसे भी नहीं थे. तो यही एक वाद्य था. भगवान श्रीकृष्ण के पास भी उतने पैसे नहीं थे, तो उन्होंने बांस का एक टुकड़ा लिया, उसमें छेद कर उसे बजाने लगे. ना तारों की ज़रूरत, ना भारी खर्च. मेरा मन उसी ओर चला गया."

बांसुरी के साथ उनका जुड़ाव केवल व्यवहारिक नहीं बल्कि आत्मिक था.

वे कहते हैं, "हम लोग सोचते हैं कि बहुत बड़ा वाद्य बजाएंगे, इलेक्ट्रॉनिक साज लेंगे, तभी लोगों को अच्छा लगेगा. लेकिन बांसुरी को ट्यून करने की भी ज़रूरत नहीं होती. यही सबसे अच्छा है."

हरि प्रसाद चौरसिया के लिए बांसुरी केवल एक वाद्य नहीं, बल्कि वह संगीत है जो भीतर से निकलता है और आत्मा को छू जाता है.

फ़िल्मों में मौक़ा कैसे मिला? image Getty Images पंडित हरि प्रसाद चौरसिया ने लता मंगेशकर, आरडी बर्मन, मोहम्मद रफ़ी और किशोर कुमार के साथ भी काफ़ी काम किया

पंडित हरि प्रसाद चौरसिया का कटक ऑल इंडिया रेडियो से ट्रांसफर मुंबई ऑल इंडिया रेडियो में हो गया था. मुंबई आने के एक-दो हफ़्ते बाद ही उन्हें एहसास हुआ कि मुंबई में ज़िंदगी आसान नहीं है. उस समय उनकी तनख़्वाह मात्र 160 रुपये थी.

उन्होंने कहा, "मेरी तनख़्वाह के 160 रुपये तो सिर्फ़ मुंबई की लोकल ट्रेन में आने-जाने में ही ख़र्च हो जाते थे. वहीं कटक में 160 रुपये की तनख़्वाह काफ़ी थी."

एक दिन संयोग से मुंबई ऑल इंडिया रेडियो में म्यूज़िक डायरेक्टर मदन मोहन की रिकॉर्डिंग चल रही थी. गायक तलत महमूद गा रहे थे, लेकिन रिकॉर्डिंग के लिए बांसुरी वादक नहीं पहुंचे थे.

पंडित हरि प्रसाद चौरसिया बताते हैं, "रेडियो से ड्यूटी ऑफ़िसर को फ़ोन किया गया और फिर मुझे बुलाया गया. मदन साहब ने पूछा – बंबई में नए हो? पहले कभी फ़िल्मों में बजाया है?' मैंने जवाब दिया, नहीं, लेकिन बजाऊंगा ज़रूर. जैसे ही मैंने बजाना शुरू किया सब रिकॉर्डिग के अंदर खड़े हो गए."

"फिर उन्होंने मुझसे पूछा कि मैं करता क्या हूं. जब मैंने बताया कि मैं रेडियो में नौकरी करता हूं, तो उन्होंने कहा, रेडियो छोड़ दीजिए. आपको ज़रूरत है तो बजा कर जाइए और नहीं है तो सिर्फ़ पैसे ले जाइए. उस दिन जो इज़्ज़त मिली, वैसी मैंने उम्मीद भी नहीं की थी. लोग इंडस्ट्री में आकर संघर्ष करते हैं, और मैं यहां ऐसे जम गया जैसे किसी का जमाई हूं."

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इसके बाद पंडित हरि प्रसाद चौरसिया की कला की गूंज हर ओर फैल गई.

उन्होंने कहा, "तब से जो मेरा दौर शुरू हुआ, तो फिर रुका नहीं. सारे फ़िल्मी कलाकारों का आशीर्वाद और प्यार मिला. लोग कहते, अगर हरिप्रसाद नहीं आएंगे, तो रिकॉर्डिंग नहीं होगी. चाहे रोशन साहब हों, मदन मोहन हों, शंकर-जयकिशन या ओपी नैयर, सबने मुझे सराहा."

हरिप्रसाद चौरसिया ने यह भी माना कि उन्हें कभी उम्मीद नहीं थी कि इलाहाबाद जैसा शहर छोड़कर वे मुंबई जैसे महानगर में टिक पाएंगे.

उन्होंने आगे कहा, "लेकिन मैंने जो शास्त्रीय संगीत सीखा था, अपने घराने, अपने स्कूल से, वही फ़िल्मी संगीत में भी एक नई दिशा देने लगा. लता जी, मुकेश जी, मोहम्मद रफ़ी साहब सब मुझसे प्यार करते थे. जब रिकॉर्डिंग में मैं नहीं होता, तो पूछते, कहां थे आप? क्यों नहीं आए? यह सब सुनकर अच्छा लगता था."

लंदन की पहली उड़ान image Getty Images पंडित हरि प्रसाद चौरसिया मुंबई स्थित अपने आश्रम गुरुकुल वृंदावन में ग़रीब बच्चों को संगीत की शिक्षा नि:शुल्क दे रहे हैं

पंडित हरि प्रसाद चौरसिया के जीवन की पहली विदेश यात्रा किसी आम कलाकार की पहली उड़ान नहीं थी, यह उनके संगीत सफ़र के लिए एक ऐतिहासिक मोड़ थी.

उस वक़्त उनके पास विदेश यात्रा के लिए पासपोर्ट भी नहीं था.

वे याद करते हैं, "हेमंत कुमार साहब जो न सिर्फ़ एक बेहतरीन गायक और संगीतकार थे, बल्कि एक शानदार इंसान भी थे. उन्होंने मुझसे कहा कि मैं उनके साथ टूर पर चलूं. वह उनका पहला अंतरराष्ट्रीय दौरा था और मंच था- रॉयल अल्बर्ट हॉल, लंदन में आयोजित एक सांस्कृतिक महोत्सव."

"उस दिन कार्यक्रम की फ्रंट सीट पर बैठे थे जॉर्ज हैरिसन, मशहूर बीटल्स बैंड के सदस्य, साथ में टॉम स्कोल्ज़ और बिली प्रेस्टन. उस दिन मुझे लगा कि मैंने लंदन में दुनिया जीत ली."

उनकी यह पहली विदेश यात्रा सिर्फ़ एक मंज़िल नहीं थी, बल्कि भारतीय शास्त्रीय संगीत को वैश्विक पहचान दिलाने की एक शुरुआत थी .

बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित

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