भारतीय साहित्य में बहुत कम आंदोलन ऐसे रहे हैं जो दलित साहित्य जितने तीव्र, प्रभावशाली और ऐतिहासिक रूप से ज़रूरी साबित हुए हों.
दलित साहित्य की ख़ासियत यह है कि यह जातिगत अत्याचार झेलने वाले लोगों के अपने अनुभवों से उपजता है, इसलिए यह बेहद निजी और मौलिक होता है.
जहां मुख्यधारा का भारतीय साहित्य अक्सर ब्राह्मणवादी परंपराओं को अपनाता है, वहीं दलित साहित्य इन परंपराओं को चुनौती देता है. वह एक ऐसी विरोधाभासी कथा सामने लाता है जिसके केंद्र में वंचित समुदायों की ज़िंदगी और संघर्ष होते हैं.
भीतरी संघर्षों के साथ ही बाहरी उपेक्षाओं की दोहरी चुनौतियों से जूझता हुआ, आज हिंदी दलित साहित्य एक नाज़ुक मोड़ पर खड़ा है.
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एक तरफ़ लेखक अभिव्यक्ति की शैली, आत्म-प्रतिनिधित्व और रचनात्मक ठहराव से जूझ रहे हैं, वहीं दूसरी ओर उन्हें एक ऐसे प्रकाशन जगत से लड़ना पड़ रहा है जो दलित कहानियों को सिर्फ़ "एक मौक़े की चीज़" समझता है. उन्हें साहित्य की मुख्यधारा का हिस्सा मानने से कतराता है.
आज भी सवर्ण स्वाद से संचालित होने वाला बाज़ार दलित लेखन को सिर्फ़ दिखावे के लिए जगह देता है, लेकिन उसकी गंभीर प्रचार-प्रसार या अनुवाद में ख़ास रुचि नहीं दिखाता.
जहां मराठी दलित साहित्य अब राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अनुवाद के ज़रिए थोड़ी पहचान पा रहा है, वहीं समाज के भीतर और बाहरी सांस्कृतिक व्यवस्था से हिंदी दलित लेखक आज भी सीमित दायरे में अपनी लड़ाई ख़ुद लड़ रहे हैं.
पिछले एक दशक में हिंदी दलित साहित्य ने कई महत्वपूर्ण रचनाएं दी हैं. जैसे-
अजय नावरिया की अनक्लेम्ड टेरेन (साल 2018), यशिका दत्त की कमिंग आउट ऐज़ दलित (साल 2019), शाहू पटोले की दलित किचन ऑफ़ मराठवाड़ा (साल 2024), योगेश मैत्रेय की वॉटर इन ए ब्रोकन पॉट: ए मेमॉयर (साल 2023) और सुजाता गिडला की ऐंट्स अमंग एलीफैंट्स (साल 2017).
इन किताबों ने दलित साहित्य को सिर्फ़ जातिगत हिंसा के इर्द-गिर्द सीमित नहीं रखा, बल्कि शहरी अकेलेपन, पहचान की खोज और आधुनिक वैश्विक संदर्भों तक फैलाया है.
नए लेखक जैसे विहाग वैभव, पराग पवन और सुनीता मंजू अब केवल अत्याचार को बयान नहीं कर रहे हैं, बल्कि वे सांस्कृतिक सत्ता, पूंजीवादी विकृति और साहित्यिक पहचान की राजनीति पर भी सवाल उठा रहे हैं.
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जैसे-जैसे दलित साहित्य विकसित हो रहा है, आज के लेखक आत्मकथात्मक लेखन से आगे बढ़ने और बाज़ारीकरण के दबावों से जूझने की नई चुनौतियों का सामना कर रहे हैं.
वे इस साहित्यिक परंपरा की बदलती आत्मा, संघर्षों और भविष्य को लेकर अलग-अलग राय रख रहे हैं.
विहाग वैभव, जिनका पहला कविता संग्रह 'मोर्चे पर विदागीत' साल 2023 में प्रकाशित हुआ, एक सतर्क यथार्थ की बात करते हैं.
वह कहते हैं, "लंबे समय तक आत्मकथा दलित साहित्य की प्रमुख विधा रही है, जिसने जीवन की कठोरता और तीव्रता को व्यक्त करने का मज़बूत ज़रिया दिया. आज की सबसे बड़ी चुनौती है कि हम इस लेखन से आगे बढ़ें और दूसरी साहित्यिक शैलियों को भी अपनाएं. लेकिन यह बदलाव तभी संभव है जब हम गहराई से आत्मचिंतन करें और अपने दृष्टिकोण पर फिर से विचार करें."
वह साहित्य में गहराई और कलात्मक विविधता की वकालत करते हैं, जहां दर्द की तीव्रता सौंदर्यबोध से संतुलित हो. जब उनसे आज के दलित साहित्य में उम्मीद के बारे में पूछा गया तो उन्होंने स्पष्ट कहा कि वो ज़्यादा उम्मीदें नहीं रखते.
उनका मानना है कि दलित साहित्य के हलकों में भी अब करियर बनाने के महत्व ने जगह बना ली है. कई बार जो लोग जाति और वर्ग की सच्ची चेतना के साथ आते हैं, वे कुछ साल में संगठनों के भीतर काम करके ही निराश हो जाते हैं.
उनका कहना है कि पूंजीवाद ने इस क्षेत्र को भी बदल डाला है और वह सामूहिक भावना जो दो-तीन दशक पहले इस साहित्य में झलकती थी, अब कुछ लोगों के लिए केवल व्यक्तिगत लाभ का ज़रिया बन गई है.
वहीं लेखिका अनीता भारती मानती हैं कि दलित साहित्य की स्थिति आज बहुत मज़बूत है.
उनका कहना है कि न सिर्फ़ हिंदी में, बल्कि कई अन्य भाषाओं में भी दलित साहित्य की रचना तेज़ी से हो रही है. सिर्फ़ कविताएं और कहानियां ही नहीं, बाबा साहेब आंबेडकर के लेखन, दलित इतिहास, संस्कृति और अन्य विषयों पर भी बड़ी संख्या में लेखन सामने आ रहा है.
लेखक पराग पवन, एक युवा आवाज़ हैं. वह अपनी दलित पहचान को "संदर्भ के अनुरूप" स्वीकार करते हैं.
वह सवाल उठाते हैं कि 'दलित कवि' कहे जाने से क्या उनकी रचनात्मकता की ख़ासियत उजागर होती है या उन्हें एक तंग दायरे में सीमित कर दिया जाता है.
उनका मानना है, "कला कभी निष्पक्ष नहीं होती. कौन कह रहा है, यह उतना ही मायने रखता है जितना यह कि क्या कहा जा रहा है."
वह मानते हैं कि आज भी साहित्य की दुनिया पर प्रभावशाली लोगों का वर्चस्व बना हुआ है और दलित समेत तमाम हाशिए के समुदायों की आवाज़ों को आज भी अपनी पहचान और स्वीकृति के लिए लंबा संघर्ष करना पड़ रहा है.
दलित लेखिकाएं तो बहुस्तरीय उपेक्षा का सामना करती हैं; जहां जाति, लिंग और सामाजिक-आर्थिक उपेक्षा का तिहरा बोझ उनके रास्ते में बाधा बनता है. रजनी डिसोदिया, सुनीता मंजू और प्रियंका सहानी इस उपेक्षा को स्पष्ट रूप से उजागर करती हैं.
डिसोदिया का कहना है कि प्रमुख पब्लिशर नई दलित लेखिकाओं को आर्थिक रूप से फ़ायदेमंद नहीं मानते, जिसकी वजह से वे साहित्यिक दुनिया की मुख्यधारा से बाहर कर दी जाती हैं.
लेखकों के विपरीत, दलित लेखिकाएं अक्सर पहली पीढ़ी की लेखिकाएं होती हैं, जिनके पास न तो साहित्यिक एजेंट होते हैं, न ही प्रचार के नेटवर्क या संस्थागत मंच. उन्हें यह पूरा क्षेत्र अपने दम पर पार करना होता है.
लेखिका सुनीता मंजू कहती हैं, "शुरुआत में दलित साहित्य को मान्यता के लिए संघर्ष करना पड़ा, क्योंकि यह पारंपरिक साहित्यिक मानकों पर खरा नहीं उतरता था. लेकिन समय के साथ, इसने अपनी जगह भी बनाई है और स्वीकृति भी पाई है."
वह मानती हैं कि समाज के बहुसंख्यक हाशिए के लोग जो साहित्य लिख रहे हैं, वही असल में मुख्यधारा का साहित्य है.
कोलकाता की प्रियंका सहानी ज़ोर देती हैं कि दलित महिलाओं के लिए लेखन कई स्तर का एक प्रतिरोध है- पितृसत्ता, जातिवाद और नवउदारवादी व्यवस्था में मिटा दिए जाने की कोशिशों के ख़िलाफ़.
वह बामा की 'करुक्कू' और उर्मिला पवार की 'द वीव ऑफ माय लाइफ़' की परंपरा से प्रेरणा लेते हुए कहती हैं, "हम इसीलिए नहीं लिख रहे हैं कि हमें उनकी साहित्यिक परंपरा में शामिल किया जाए. हम इसलिए लिख रहे हैं कि हम अपनी परंपरा बना सकें."
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भारत में दलित प्रकाशन आज भी उन गहरे भेदभावों से जूझ रहा है जो समाज की बड़ी संरचनाओं में देखने को मिलते हैं. मुख्यधारा की मीडिया और प्रकाशन संस्थानों में वरिष्ठ संपादकीय और फ़ैसले लेने वाले पदों पर दलित प्रतिनिधित्व का अभाव अब भी बना हुआ है.
यह केवल संयोग नहीं है बल्कि यह एक ऐसी सांस्कृतिक सोच का हिस्सा है जो वंचित समुदाय के लोगों को साहित्यिक केंद्रों से दूर रखती है.
भले ही कुछ बड़े प्रकाशकों ने दलित आवाज़ों को सीमित जगह दी है, लेकिन यह असंतुलित दिखती है.
राजकमल प्रकाशन समूह के संपादकीय निदेशक सत्यानंद निरूपम इस मुद्दे पर अलग नज़रिया रखते हैं. वह कहते हैं कि उनका प्रकाशन समूह इस बात का हमेशा ध्यान रखता है कि संपादकीय टीम और प्रकाशन में बहुलता बनी रहे और इसमें लोकतांत्रिक मूल्य दिखाई दे.
वह दावा करते हैं, "हमारे संस्थान में कोई भेदभाव नहीं है और इसमें हर वर्ग को शामिल करने की ज़रूरत पर ज़ोर होता है. अगर ऐसा नहीं होगा तो इन्टेलेक्चुअल मोनोटॉनी और एकतरफ़ा फ़ैसलों का ख़तरा बना रहेगा."
निरूपम मानते हैं कि तुलनात्मक तौर पर दलित साहित्य में सीमित प्रकाशन हुए हैं, लेकिन उन्हें मुख्यधारा के प्रकाशकों ने जगह दी है.
उनका कहना है, "दया पवार, दलपत चौहान, पीई सोनकाम्बले, राम नागरकर, नरेंद्र जाधव जैसे लेखकों को हिंदी में सबसे पहले राजकमल प्रकाशन समूह ने जगह दी है. बीते एक दशक में हमारे प्रकाशन की 23 सबसे ज़्यादा बिकने वाली पुस्तकों में छह दलित-आंबेडकरवादी साहित्य की पुस्तकें हैं."
लेखिका अनीता भारती कहती हैं, "प्रकाशक आमतौर पर ऐसी रचनाएं पसंद करते हैं जो 'कैची' या 'सनसनीखेज़' हों, लेकिन वे जटिल या प्रयोगधर्मी दलित साहित्य में निवेश नहीं करना चाहते."
वह कहती हैं कि अब एक नया चलन बन गया है, जिसमें सिर्फ़ पहले से स्थापित और चर्चित नामों को ही मौक़ा मिलता है. ऐसे में नए या उभरते दलित लेखकों के लिए बड़े प्रकाशकों के साथ जुड़ पाना और भी मुश्किल हो गया है.
नतीजतन कई दलित लेखक या तो ख़ुद ही अपनी किताबें छापने को मजबूर हो जाते हैं या फिर छोटे और स्वतंत्र प्रकाशकों का सहारा लेते हैं, जिनके पास सीमित संसाधन और वितरण नेटवर्क होते हैं. इससे उनके लेखन की पहुंच काफ़ी सीमित हो जाती है.

शांतिस्वरूप बौद्ध द्वारा स्थापित और अब कपिल बौद्ध द्वारा संचालित स्वतंत्र दलित प्रकाशन 'सम्यक प्रकाशन' का कहना है कि आर्थिक समस्या उनके सामने हमेशा बनी रहती है.
कपिल बौद्ध बताते हैं, "दलित साहित्य पर एक तरह से अघोषित प्रतिबंध है. आज भी हमारी किताबों को पब्लिक लाइब्रेरी में जगह नहीं मिलती और आर्थिक संसाधनों की कमी हमेशा बनी रहती है."
सम्यक ने गाँवों के विक्रेताओं, पाठकों के साथ सीधा जुड़ाव और मेले-उत्सवों में भागीदारी के ज़रिये अपना नेटवर्क खड़ा किया है.
ये दलित और बहुजन साहित्य को संजोने और उसे व्यापक रूप से प्रसारित करने का काम कर रही हैं, ताकि ये रचनाएं आम लोगों की चेतना को जागरूक कर सकें. लेकिन दलित साहित्य की दुनिया पूरी तरह से शुद्ध भी नहीं है.
'दलित दस्तक' और 'दास पब्लिकेशन' के संस्थापक संपादक अशोक दास कहते हैं, "दलित साहित्य को अक्सर केवल एक सीमित विषय के रूप में देखा जाता है. दलित साहित्य को डिस्ट्रिब्यूशन की कमज़ोर व्यवस्था और पुस्तकों की प्रमुख दुकानों में जगह पाने जैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है."
"सामाजिक भेदभाव की वजह से यह और मुश्किल हो जाता है. इसके अलावा इन्हें मीडिया में भी उचित जगह नहीं मिलती है. जिसके पीछे व्यावसायिक और सामाजिक कारण होते हैं. इन सबकी वजह से बाज़ारों में दलित साहित्य सीमित तौर पर ही दिखता है."
मुनाफ़ा कमाने वाले भी हैं मैदान मेंहाल के वर्षों में कुछ तथाकथित 'दलित प्रकाशन' सामने आए हैं जो दलित आंदोलन से ज़्यादा मुनाफे़ को प्राथमिकता देते हैं. कई बार 'दलित साहित्य' का नाम केवल बिक्री बढ़ाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है.
इनमें ऐसी सामग्री प्रकाशित की जाती है जो आरक्षण पर सवाल उठाती है, मार्क्स और आंबेडकर को एक-दूसरे के ख़िलाफ़ खड़े करती है और आंबेडकर को मुस्लिम विरोधी या बुद्ध को विष्णु का अवतार बताती है.
ऐसी बातों से दलित आंदोलन की वैचारिक और ऐतिहासिक नींव कमज़ोर होती है. वरिष्ठ लेखिका सुशीला टाकभौरे कहती हैं, "हमारा मक़सद अपनी लेखनी के ज़रिये बराबरी, सम्मान और भाईचारा लाना है."
"ऐसे में दलित साहित्य को बाहर से मिलने वाले भेदभाव के साथ-साथ अंदर से आने वाली ग़लतबयानी और बाज़ारवाद से भी सतर्क रहना होगा."
दलित साहित्य ने कभी दया नहीं मांगी. इसकी मांग हमेशा नैतिकता और साहित्यिक दृष्टिकोण की फिर से व्याख्या रही है. आज सवाल यही है कि क्या यह साहित्य बाज़ार के दबावों में ख़त्म हो जाएगा या फिर धैर्य और रचनात्मक साहस से एक नया रास्ता बनाएगा?
एक बात स्पष्ट है कि हिंदी दलित साहित्य की आत्मा जिस तरह से समाज के सबसे हाशिए पर खड़े व्यक्ति की प्रतिनिधि रही है, उसे इतनी आसानी से मिटाया नहीं जा सकता. वह फिर से ख़ुद को गढ़ेगा, विरोध करेगा और अपनी बात नए संदर्भों में मज़बूती से रखेगा.
अगर हम हर किसी को साथ लेने और सामाजिक न्याय के विचार में यक़ीन रखते हैं और अगर हम दलित लेखन को केवल पढ़ने नहीं, बल्कि समझने और महसूस करने की गंभीरता दिखाएं तो यह साहित्य आने वाले समय में और भी ख़ूबसूरती से फलेगा-फूलेगा.
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