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जयंती विशेष: समाज सुधार की मशाल जलाने वाले कलम के सिपाही गोपाल गणेश आगरकर

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New Delhi, 13 जुलाई . जब समाज परंपराओं की बेड़ियों में जकड़ा था और बोलने भर को क्रांति माना जाता था, तभी एक युवक ने न सिर्फ सामाजिक रूढ़ियों को चुनौती दी, बल्कि उन पर सवाल उठाकर एक पूरी पीढ़ी को सोचने की नई दिशा दी. वह समाज सुधारक, कलम का सिपाही और विचारों का योद्धा था, जो कुरीतियों से लड़ने के लिए किसी तलवार की नहीं, विवेक और शिक्षा की मशाल लेकर चला था. उस शख्स का नाम था गोपाल गणेश आगरकर.

14 जुलाई को भारत उस निर्भीक विचारक और समाज सुधारक की जयंती मना रहा है. उन्होंने न केवल ब्रिटिश राज के विरुद्ध स्वाभिमान की आवाज उठाई, बल्कि भारतीय समाज के भीतर बैठे अंधकार को दूर करने के लिए सत्य, तर्क और सुधार का मार्ग अपनाया. यह अवसर उन्हें सिर्फ याद करने का नहीं बल्कि उनके विचारों को जीने का भी है. महाराष्ट्र की मिट्टी में जन्मा यह तेजस्वी व्यक्तित्व न केवल शिक्षाविद और पत्रकार था, बल्कि सामाजिक क्रांति का ऐसा वाहक था, जिसने लोकमान्य तिलक जैसे समकालीनों से वैचारिक टकराव मोल लेकर भी अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया.

14 जुलाई 1856 को महाराष्ट्र के सतारा जिले के तेम्मू गांव में जन्मे गोपाल गणेश आगरकर का प्रारंभिक जीवन आर्थिक तंगहाली में बीता, लेकिन शिक्षा के प्रति अदम्य ललक ने उन्हें पुणे के दक्कन कॉलेज तक पहुंचाया. यहीं से उनकी वैचारिक यात्रा शुरू हुई, जो बाद में पूरे महाराष्ट्र और भारत के समाज सुधार आंदोलन की नींव बनी. आगरकर और लोकमान्य तिलक का साथ न्यू इंग्लिश स्कूल और बाद में फर्ग्युसन कॉलेज की स्थापना के रूप में दिखाई दिया. शिक्षा को समाज परिवर्तन का साधन मानने वाले आगरकर ने इसे केवल किताबी ज्ञान नहीं, बल्कि चेतना का स्रोत बनाया. 1892 में जब वे फर्ग्युसन कॉलेज के प्रधानाचार्य बने, तब उन्होंने 14 वर्ष तक की अनिवार्य शिक्षा, सहशिक्षा और विवेकशील पाठ्यक्रमों की वकालत की.

जहां तिलक ने ‘केसरी’ और ‘मराठा’ साप्ताहिक पत्रों के जरिए राष्ट्रवाद का स्वर उठाया, वहीं आगरकर ने ‘सुधारक’ नामक साप्ताहिक पत्र के माध्यम से सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ मोर्चा खोला. ‘केसरी’ के पहले संपादक के रूप में उन्होंने सामाजिक आलोचना की नींव रखी, लेकिन बाल विवाह और विधवा पुनर्विवाह जैसे मुद्दों पर तिलक से मतभेद के चलते 1887 में अलग हो गए और ‘सुधारक’ की शुरुआत की.

19वीं सदी के अंत में महाराष्ट्र दो वैचारिक धाराओं का गवाह बना. तिलक हिन्दू परंपराओं की रक्षा के पक्षधर थे और आगरकर पश्चिमी बौद्धिक परंपराओं से प्रेरित समाज सुधारक थे. तिलक जहां सामाजिक सुधारों के लिए ब्रिटिश हस्तक्षेप को अस्वीकार करते थे, वहीं आगरकर मानते थे कि अगर भारत को प्रगति करनी है, तो जातिवाद, छुआछूत, बाल विवाह और स्त्री अशिक्षा जैसे मुद्दों से पहले निपटना होगा. 1882 में ‘कुख्यात कोल्हापुर मामला’ में तिलक और आगरकर दोनों को एक साथ जेल हुई, लेकिन वहां भी विचारों की लड़ाई जारी रही. आगरकर ने साफ कहा कि राष्ट्र की स्वतंत्रता से पहले समाज की स्वतंत्रता आवश्यक है. यह मतभेद तिलक के ‘सहमति की आयु अधिनियम’ के विरोध के दौरान और भी गहरा हुआ.

गोपाल गणेश आगरकर न केवल जाति प्रथा के घोर विरोधी थे, बल्कि उन्होंने ‘विधवा विवाह’, ‘सह शिक्षा’, ‘नारी शिक्षा’, और ‘विवाह की न्यूनतम आयु’ जैसे मुद्दों को भी मुखरता से उठाया. उन्होंने कहा था कि जब तक स्त्री को समान अधिकार नहीं मिलते, तब तक समाज अपंग रहेगा.

केवल 43 वर्ष की आयु में 17 जून 1895 को आगरकर का निधन हो गया, लेकिन उनका विचार आज भी जीवित है. Mumbai का ‘आगरकर चौक’ आज भी उनकी स्मृति को जीवंत करता है.

पीएसके/केआर

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