सुप्रीम कोर्ट का उर्दू से जुड़े मामले में दिया गया फैसला बताता है कि भारत जैसे देश के लिए भाषाई विविधता कितनी जरूरी है। भाषा को किसी धर्म, संप्रदाय से जोड़कर नहीं देखना चाहिए। यह तो पुल की तरह है, जो लोगों को जोड़ने का काम करती है। उम्मीद है कि टिप्पणियों के रूप में आई शीर्ष अदालत की नसीहत भाषाई विवाद खड़ा करने वालों को कुछ सीख देगी। प्रभावी संवाद: यह मामला महाराष्ट्र से जुड़ा हुआ था। वहां बॉम्बे हाईकोर्ट ने अकोला के पाटूर नगर परिषद की नई इमारत के साइनबोर्ड पर मराठी के साथ उर्दू के इस्तेमाल की अनुमति दी थी। सुप्रीम कोर्ट इसी फैसले के खिलाफ दायर याचिका पर सुनवाई कर रहा था। अदालत ने माना कि उर्दू के प्रयोग का उद्देश्य केवल प्रभावी संवाद है। बोलचाल की भाषा: भारत में आबादी की तरह भाषाएं भी मिली-जुली हैं। एक भाषा के शब्द दूसरी भाषा में कब चले जाते हैं, बोलने वाले को भी पता नहीं चलता। और उर्दू तो खासतौर पर बहन कही जाती है हिंदी की। इसके बिना रोजमर्रा की बोलचाल भी नहीं हो सकती। यूपी, बिहार जैसे हिंदीभाषी राज्यों को छोड़ दिया जाए, तो कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना जैसे दक्षिण के राज्यों में भी उर्दू बोलने वालों की अच्छी-खासी तादाद है। जिस महाराष्ट्र में यह विवाद हुआ, वहां स्थापित फिल्म इंडस्ट्री उर्दू के लफ्जों के बिना एक कदम भी नहीं चल पाएगी। भारत की जुबान: उर्दू से जुड़ा विवाद उस मानसिकता की देन है, जिसके हिसाब से यह भाषा भारत की नहीं है। यह धारणा बना ली गई है कि जिस तरह धर्म के आधार पर देश का बंटवारा हुआ और उसके परिणाम में मानव इतिहास का सबसे बड़ा विस्थापन देखना पड़ा, उसी तरह उर्दू को भी भारत से विस्थापित हो जाना चाहिए। हालांकि भाषाएं अपना देश नहीं छोड़ा करतीं और उर्दू तो भारत की ही है, जैसे संस्कृत, हिंदी या फिर बांग्ला। इन भाषाओं ने अपने शब्दों, साहित्य से दूसरी भारतीय भाषाओं को और समृद्ध ही किया है। उर्दू का अदब और रेशमी सलीका भारतीय संस्कृति का हिस्सा है, जिसे कोई नकार नहीं सकता। भाषा पर राजनीति: बहुभाषी देश में भाषाओं को लेकर विवाद कोई नई बात नहीं है। दक्षिण भारत में हिंदी को लेकर प्रतिरोध बहुत पुराना है। हाल में राष्ट्रीय शिक्षा नीति की वजह से यह मामला फिर उछला था। तमिलनाडु की डीएमके सरकार ने आरोप लगाया था कि केंद्र सरकार उन पर हिंदी थोपने की कोशिश कर रही है। इस तरह के विवादों में आम लोगों की संवेदनाएं, पुरानी धारणाएं और राजनीति प्रमुख भूमिका निभाती हैं। लेकिन सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी के अनुसार यह समझने की जरूरत है कि भाषा धर्म नहीं है... यह एक समुदाय, क्षेत्र और लोगों की होती है, धर्म की नहीं।
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